मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

मज़दूर

मज़दूर
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गर्मी में तपती दुपहरी के
चिलचिलाते तीखे धूप से
कारिआए हुए तन के बर्त्तन में
कभी औंटते हो अपना खून
और बनाते हो समृद्धि की
गाढ़ी-गाढ़ी राबड़ी
किसी और के लिए
पर झुलस जाती है
तुम्हारी तो छोटी-छोटी ईच्छाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे कितने भी पसीने बहाएं।

सर्दी में ठिठुरती रातों की
हाड़ बेंधती ठंडक से
ठिठुरे हुए हृदय के आयतन में
कभी जमाते हो अपना ख़ून
बनाते हो चैन की
ठंडी-ठंडी कुल्फ़ी
किसी और के लिए
पर जम-सी जाती है
तुम्हारी छोटी-छोटी आशाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे क्यों ना ठिठुर जाए।

कितने मजबूर हो तुम
जीवन के 'मजे' से 'दूर' हो तुम
हाँ, हाँ, शायद एक 'मजदूर' हो तुम
हाँ ... एक मज़दूर हो तुम !

स्वप्निल यात्रा


किसी दिन उतरेंगे हम-तुम
अपनी ढलती उम्र-सी
गंगाघाट की सीढ़ियों से
एक दूसरे को थामे, गुनगुनाते
'छू-कित्-कित्' वाले अंदाज़ में
और बैठेंगे पास-पास
उम्र का पड़ाव भूलकर
गंग-धार में पैर डुबोए घुटने तक
और उस झुटपुटे साँझ में
जब धाराओं पर तैरती
क्षितिज से 30 या 40 डिग्री कोण
ऊपर टंगे अस्ताचल के सूरज की
मद्धिम सिन्दूरी किरणें
खेलती जल से 'डेंगापानी'
प्रतिबिंबित होकर
हमारे अंगों को छूकर
फैल जायेगी
मेरे फिरोज़ी टी-शर्ट से होकर
तुम्हारी काली कुर्ती में
एकाकार हो जायेगी
हर पल लाख़ सवाल करने वाले
होंठ मौन होकर
सिर्फ़ उस पल को करेंगे महसूस
अवनत होते तन के ज्यामितीय
आयतन से परे , उन्नत मन के जटिल
बीजगणितीय सूत्रों को
उँगलियों के पोरों पर दुहराएँगे
अनजाने- जाने साँसों
की मदहोश जुगलबंदी पर
अनायास ही
तर्जनी से टटोल कर 
तुम्हारी अधरों को
वापस अपने होठों पर
फिरा कर वही तर्जनी
महसूस करूँगा तुम्हारे
कंपकंपाते अधरों की नमी,
गंगोत्री के पारदर्शी जल-सा
तुम्हारे बहते मन में पल-पल
तलहट में लुढ़कता पाषाण-खण्ड-सा
अनवरत दिखूँगा मैं
ढलते सुरमई शाम की
धुंधलके की चादर में लिपटे
खोकर दोनों एक-दूसरे की
मासूम पनीली आँखों में
मुग्ध पलकें उठाए निहारेंगे
कभी एक-दूसरे को, कभी क्षितिज,
कभी आकाश, कभी धुंधले-तारे
नभ के माथे पर लटका
मंगटीके-सा चाँद
बिखेरता चटख उजली किरणें
हमारी सपनीली, गीली आँखों में
कुछ पल ठहर कर
ठन्डे पानी में उतर कर
हमारे अहसासों के साथ
'लुका-छिपी' खेलेगा और ...
मैं हौले से तुम्हारी लरज़ती उँगलियों को
टटोलकर प्रेम से अपनी
हथेलियों में लपेट लूँगा
एक-दूसरे के काँधे पर टिकाकर
 प्रेम भरे
मन के सारे अहसास
मूँद कर अखरोटी पलकें
उड़ चलेंगे
हमारे-तुम्हारे मन संग-संग
प्रस्थान करेंगे महाप्रस्थान तक,
स्वप्निल अविस्मरणीय यात्रा के लिए
और गंगा की पवित्र धाराओं से
स्नेहिल आशीष पाकर
प्रेम हमारा ......
पा लेगा अजर, अमर .. अमरत्व .

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

अपना

अपना
हाँ, हाँ ..... अपना
अपना तो कोई व्यक्ति-विशेष तो होता नहीं,
जो दे दे स्नेह, प्रेम, श्रद्धा निस्वार्थ बस यूँ हीं
लगता तो है अपना वही ,
स्नेह, प्रेम, श्रद्धा की ही 
बंधन होती अटूट है,
सगे वो क्या जिनमें फूट ही फूट है,
इस लौकिक रंगमंच पर शायद
कोई सगा अपना हो भी या  ... ना भी,
पर बुरे वक्त में जो दे दे सहारा
लगता तो है अपना वही,
क्या !!!?
सगे को ही अपना कह सकते हैं!?
क्यों कहूँ भला सगे को अपना !?
क्यों ना कहें हम उसे पराया!?
हाँ, हाँ, उसे ... जो हमारे दुःख भरे लम्हों को
"किए" का फल बतला कर हँसते हैं
और हमारी ख़ुशी से सदा
स्वयं में आपादमस्तक
धधक-धधक कर जलते हैं
पल-पल कभी सुलगते हैं
या फिर उन्हें ...
जो हमारे दुःखी और दुर्घटनाग्रस्त अतितों को
किसी पुरातत्व की तरह
अँधेरे सीलन भरे अतीत के खंडहरों से
निकाला करें एक काई लगे सिक्के की तरह
और उलट-पलट कर उसे चुपचाप
एक सभ्य नागरिक की तरह
मंद-मंद मुस्कुराया करें
क्या !!?
अपना होने के लिए सगा होना
नितांत जरुरी है!? अच्छा !!!?
खून और DNA भी मिलना जरुरी है !?
ये तो सारा का सारा दिखावा है...
स्नेह, प्रेम, श्रद्धा .. के आदान-प्रदान मात्र से
क्या अपना हो सकते नहीं !!?
वाह !!!!
कैसी हम इन्सानों की भुलावा है
शायद ये .... छलावा है ......🤔🤔🤔


मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

यार ! गैस सिलेंडर यार !

यार ! गैस सिलेंडर यार !
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यार! गैस सिलेंडर यार !
काश ! तू इंसान होता
जो देता है सबक़ बेशुमार।
सबक़ पहली -
आग भी जलाते हो तुम घर - घर के चूल्हे की
तो कई पेटों की आग बुझाने के लिए
काश! लगा पाता मैं भी तुम्हारी तरह आग हर मन में
चहुँओर फैली भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए।
सबक़ दूसरी -
रंग कर रंग एक ही में सब के घर चले जाते हो तुम
कभी देखा नहीं तुम्हें कि सोची भी हो तुमने
 कभी भगवे या कभी हरे रंग में रंग जाने के लिए।
सबक़ तीसरी -
दरअसल मानता नहीं मैं तो,पर भला ये समाज ..!?
समाज हीं तय करती है कि मंदिरों के गढ़े पत्थरों में
पंडालों में , रात भर चलने वाले जागरण के ध्वनिप्रदूषणों में अपने भगवान हैं।
ये समाज यानि गोरेपन की क्रीम वाला विज्ञापन
जिसने तय कर दिया कि गोरापन हीं है सफलता की मापदंड
और काली-सांवली हैं असफल, बेकार।
मानना पड़ता है ना यार !
इसी समाज के तय किये गए तथाकथित अछूतों और स्वर्णजनों का अंतर।
पर तुम तो समाज को ठेंगा दिखाते हो
जाति, धर्म, सम्प्रदाय की खोखली दीवार ढहाते हो
सभी भेदभाव के अंतर मिटाते हो
जब एक के चौके से निकल कर दूसरे के चौके में घुस जाते हो बिंदास
बिना भेद किये जा कर घर-घर बार-बार।
यार! गैस सिलेंडर यार !
काश ! तू इंसान होता
जो देता है सबक़ बेशुमार।

साक्षात् स्रष्टा

साक्षात स्रष्टा
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एक शाम कारगिल चौक के पास
कुम्हार के आवाँ के मानिंद पेट फुलाए
संभवतः संभ्रांत गर्भवती एक औरत
साक्षात स्रष्टा , सृष्टि को सिंझाती
अपने कोख में पकाती, अंदरुनी ताप से तपाती
मानव नस्ल की कड़ी, एक रचयिता थी जाती
लगभग अपनी तीन वर्षीया बेटी की
नाजुक उँगलियों से लिपटी अपनी तर्जनी लिए हुए
इस बेटी को जनने के लिए स्वयं को दोषी मानती
इस आस में  कि शायद अबकी बार खुश कर पाएं
अपने ससुराल वालों को कोख से बेटा जन कर
बेटा यानि तथाकथित कूल-ख़ानदान का चिराग
खानदान को आगे बढ़ाने वाला - एक मोक्षदाता
फिलहाल स्वयं को दोषी मानने वाली
ससुराल वालों द्वारा दोषी ठहरायी जाने वाली
वो तो बस इतना भर जानती है कि
कोख के अंधियारे की तरह ही अँधेरी एक रात को
इस सृजन की वजह, बस इतना ही और शायद ही
उसे मालूम हो एक्स और वाई गुणसूत्रों के बारे में
काश ! ये एक्स व वाई भी ए, बी, सी, डी की तरह
जान पाती वह संभ्रांत गर्भवती औरत।

खैर ! अभी वह औरत अपने पेट के उभार को
दुपट्टे से, दाएँ से, बाएं से, सामने से, पीछे से
असफल किन्तु भरसक प्रयास करती छुपाने की
सड़क पर छितराये छिछोरों की, छोरों की और
टपोरियों की, मनचलों की, कुछ सज्जन पुरुषो की
एक्स-रे वाली बेधती नजरों से
पर कहाँ छुप पाता है भला !?
एक्स-रे तो एक्स-रे ठहरा, है ना ज़नाब !?
अन्दर की ठठरियों की तस्वीर खिंच लेता है ये
ये तो फिर भी तन का उभार है,जिसे टटोलते हैं
अक्सर टपोरी इन्हीं एक्स-रे वाली बेंधती नज़रों से
और कुछ सज्जन भी, अन्तर केवल इतना कि
टपोरी बेहया की तरह अपनी पूरी गर्दन घुमाते हैं
360 डिग्री तक आवश्यकतानुसार और ये  तथाकथित सज्जन 180 डिग्री तक हीं अपनी आँखों की पुतलियों को घुमाकर चला लेते है काम
डर जो है कि - ' लोग क्या कहेंगें '।

तभी कुछ तीन-चार ... तीन या चार ....नहीं-नहीं
चार ही थे वे -' जहाँ चार यार मिल जाएँ, वहाँ रात गुजर जाए ' गाने के तर्ज़ पर चार टपोरियों की टोली
अचानक उन छिछोरों ने की फूहड़ छींटाकसी
और बेहया-से लगाए कानों को बेंधते ठहाके
साक्षात स्रष्टा - सकपकायी-सी झेंपती औरत
असफल-सी स्वयं को स्वयं में छुपाती, समाती
ठीक आभास पाए खतरे की किसी घोंघे की तरह।
बस झकझोर-सा गया मुझे झेंपना उसका
मैं बरबस बेझिझक उनकी ओर लपका, जिनमे
था गुठखा चबाता एक सज्जन तथाकथित
जिन्हें किया संबोधित -
 ' भाई ! जब हम-आप पैदा हुए होंगे
धरती पर अवतरित हुए होंगे
उसके पहले भी, माँ हमारी-आपकी
इस हाल से, हालात से गुजरी होगी
उनके भी कोख फुले होंगे
और कोई अन्य टपोरी ठहाका लगाया होगा
कोई सज्जन पुरुष शालीनता से मुस्कुराया होगा।'
उसके सारे दोस्त  तीनों , दोस्त होने के बावजूद भी
पक्ष में मेरे बोलने लगे, वह बेशर्मी से झेंप-सा गया।

देखा अचानक उस संभ्रांत औरत की तरफ
वह साक्षात स्रष्टा झेंपती, सकपकाती, सकुचाती
अपने रास्ते कब का जा चुकी थी और ....
अब तक झेंपना उस आदमी का
ले चूका था बदला उस औरत की झेंप का
और मैं सुकून से  गाँधी-मैदान में बैठा
ये कविता लिखने लगा ... 'साक्षात स्रष्टा'।.

अनाम रिश्ते !


अनाम रिश्ते!/क्षणभंगुर
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बाद लंबी तपिश के
उपजी पहली बारिश से
मिट्टी की सोंधी खुशबू की तरह
उपजते हैं कुछ अनाम रिश्ते।

सरदी की ठिठुरती हुई
शामों से सुबहों तक
फैली ओस की बूँदों की तरह
उभरते हैं कुछ अनाम रिश्ते।

अमावस की काली रातों में
रातों के अंधियारों में
मचलते जुगनुओं की तरह
चमकते हैं कुछ अनाम रिश्ते।

क्षणभंगुर होकर भी
"सखी" न जाने क्यों?
दिल को अक्सर ही
भरमाते हैं कुछ अनाम रिश्ते।


©सुबोध सिन्हा