मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

मज़दूर

मज़दूर
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गर्मी में तपती दुपहरी के
चिलचिलाते तीखे धूप से
कारिआए हुए तन के बर्त्तन में
कभी औंटते हो अपना खून
और बनाते हो समृद्धि की
गाढ़ी-गाढ़ी राबड़ी
किसी और के लिए
पर झुलस जाती है
तुम्हारी तो छोटी-छोटी ईच्छाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे कितने भी पसीने बहाएं।

सर्दी में ठिठुरती रातों की
हाड़ बेंधती ठंडक से
ठिठुरे हुए हृदय के आयतन में
कभी जमाते हो अपना ख़ून
बनाते हो चैन की
ठंडी-ठंडी कुल्फ़ी
किसी और के लिए
पर जम-सी जाती है
तुम्हारी छोटी-छोटी आशाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे क्यों ना ठिठुर जाए।

कितने मजबूर हो तुम
जीवन के 'मजे' से 'दूर' हो तुम
हाँ, हाँ, शायद एक 'मजदूर' हो तुम
हाँ ... एक मज़दूर हो तुम !

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मार्मिक.. हृदय स्पर्श करती सराहनीय अभिव्यक्ति..👌

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  2. आकलन और सराहना के लिए धन्यवाद आपको !

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  3. मर्मस्पर्शी सटीक सार्थक सृजन ।

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    1. आकलन और सराहना के लाइट धन्यवाद आपको !!!

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  4. रचना की सराहना कर के उत्साहवर्द्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद !

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  5. बहुत ही मार्मिक रचना आदरनीय सुबोध जी | मजदूर के मजे से दूर होने के एहसास को एक कविमन ही समझ सकता है | सादर शुभकामनायें |

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  6. शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद रेणु जी !

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